भारत एक कृषि प्रधान देश है। यहां की लगभग अस्सी प्रतिशत आबादी खेती किसानी पर ही निर्भर है। अर्थात हमारे देश का अधिकतर वर्ग किसान की श्रेणी में आता है! फिर भारत में प्राकृतिक संसाधनों, ऊर्जा, औद्योगिक वातावरण, कुशल श्रम सभी कुछ आवश्यक तत्वों के होते हुए भी आज का किसान इतना दयनीय है कि वह धीरे-धीरे किसानी जैसे जीविकोपार्जन से निराश होकर अन्य जीविकोपार्जन के लिए साधन खोजने पर विवश हो गया है।
हमारे यशस्वी प्रधानमंत्री स्वर्गीय लाल बहादुर शास्त्री ने एक नारा दिया था – ”जय जवान जय किसान”! अर्थात देश की रक्षा करने वाले सैनिक जवान हमारे लिए सम्माननीय हैं, तो वहीं देश का पेट भरने वाले किसान भी उतने ही आदरणीय हैं। शायद उसे वक्त किसी ने भी यह नहीं सोचा होगा कि एक सैनिक तो एक देश विशेष की रक्षा के लिए दूसरे देश के इंसान को मौत के घाट उतार कर अपनी देश भक्ति का परिचय देता है। वहीं एक किसान तो बिना कोई भेदभाव किया हर इंसान के लिए अन्न उपजाता है। अर्थात वह पूरे इंसानियत की सेवा करता है। इस मायने में किसान तो देवतुल्य हो जाता है। आज यह हालत है कि इस देवता की हालत ही जर्जर है।
देश की सबसे बड़ी समस्या है किसानों की गरीबी व पिछड़ापन। इस पिछड़ेपन के कई कारण हैं। इन किसानों को उनकी उपज का उचित मूल्य का नही मिलना, दूसरे कृषि के उन्नत एवं सस्ते साधनों का अभाव होना, तीसरे किसानों और सरकार के बीच सीधा संबंध ना होना। यही तीन मुख्य कारण हैं जो हानिकारक साबित हो रहे हैं। बीच के व्यापारी- दलाल आदि इनका शोषण कर सरकार को भी आर्थिक चपत लग रहे हैं। सरकार को चाहिए कि वह सीधे किसानों से उनके उपज का विक्रय करने की व्यवस्था करें! तभी उन्हें बिचौलियों एवं व्यापारियों की बनी हुई इस गलत व्यवस्था पर काबू पाने में आसानी हो सकती है। एक बहुत बड़ी विवशता आज किसानों के साथ चल रही है। वह यह कि प्रत्येक व्यवसायी या विक्रेता को अपने विक्रय वस्तु का विक्रय मूल्य निर्धारण करने का अधिकार दिया गया है। पर किसान को अब भी उसके उपज का विक्रय मूल्य निर्धारित करने का अधिकार नहीं मिल पाया है। जबकि वह अपनी उपज के तैयार होने के दौरान के सभी जोखिम, प्राकृतिक विपदाओं को स्वयं अकेले के बलबूते पर ही झेलता है। परिणामस्वरूप एक किसान को उसके उपज का उचित पारिश्रमिक नहीं मिल पाता जो उसके लिए घाटे का सौदा बन जाती है। और वह पुन: इन व्यापारियों या ठेकेदारों के पास एक कर्जदार के रूप में उनका चिर ऋणी बना दिया जाता है। किसान का यह अप्रत्यक्ष शोषण न जाने कब से चला आ रहा है। इस परंपरा को अब बंद करने के लिए अब सरकारी स्तर पर कुछ ठोस पहल होना चाहिये। अगर देश का विकास करना है तो इस अधिसंख्य वर्ग के विकास के लिये सार्थक पहल उतनी ही जरूरी है , जितना अन्य व्यावसायिक कार्य।
सरकारी उपक्रमों से भी किसानों को अपने कृषि कार्य के उचित संपादन के लिये खाद, बीज, ऋण, हल, बैल व अन्य साधनों को मुहैया नहीं करवाया जा रहा है। हां ये भी सच है कि इन्हें वह सब प्राप्त होता है पर ऊंचे ब्याज दर के बाद और वह फिर जब अपनी पूरी मेहनत और ईमानदारी के बाद भी ऋण को नहीं पटा पाता है तो उसके जीविका का मुख्य स्रोत खेत और खलिहान ही जप्त किया कर लिए जाते हैं ।
किसानों की दयनीय हालात को दूर करने के लिए कृषि का भरपूर विकास किया जाना भी अब अत्यंत आवश्यक हो गया है। कृषि के विकास के लिए जरूरी है कि सिंचाई व्यवस्था, उन्नत बीज, पशुपालन, पर्याप्त खाद एवं उर्वरक तथा प्रभावी कीटनाशक एवं अन्य संसाधन उपलब्ध हों। किसानों का मानसिक विकास भी आवश्यक होगा। जब तक इनमें नूतनता को ग्राह्य करने की शक्ति पैदा नहीं हो जाएगी इनकी आधुनिकीकरण में रुचि नहीं होगी। कृषक को स्वावलंबी बनाने के लिए जरूरी है कि कृषि भूमि को छोटे-छोटे टुकड़े होने से बचाया जाए। यदि कृषि भूमि अपना खर्च बर्दाश्त नहीं कर सकती है, तो फिर वह अनुपयोगी हो जाएगी। और अंतत उसे ( जीविका) त्याग कर किसान मजदूरी करने या रोजी-रोटी के लिए अन्य उपाय अपनाने को बाध्य हो जाएगा। इनका पिछड़ापन दूर करने के लिए शिक्षा भी उतनी ही आवश्यक है। साथ ही निर्बल वर्ग के अधिकारों को सरकार की ओर से संरक्षण भी जरूरी है।
किसानों की प्रगति पर दृष्टि डालने से ऐसा एक भी पहलू नजर नहीं आता, जिस पर हम गर्व कर सकें। मध्य प्रदेश व छत्तीसगढ़ की ही बात करें तो प्रदेश में सब कुछ होने के बावजूद भी किसान अपेक्षाकृत प्रगति नहीं कर पाया है। जिसका एक ही कारण है वह है कुप्रबंधन। सक्षम प्रबंधन खराब से खराब स्थिति में भी प्रगति के द्वार खोल देता है। पंजाब व हरियाणा के किसानों की प्रगति इस बात का प्रत्यक्ष उदाहरण है। गुजरात व महाराष्ट्र में हुई प्रगति भी क्षमता पूर्ण प्रबंधन से ही संभव हो सकी है। वहीं दूसरी तरफ सिंचाई का उदाहरण लें, हमारे कुछ प्रदेशों की सिंचाई क्षमता राष्ट्रीय औसत से काफी कम है। सिंचाई के भरपूर साधनों के बावजूद हम सिंचाई के मामले में राष्ट्रीय औसत से अभी काफी पीछे हैं। इसके विपरीत जो कुछ सिंचाई क्षमता निर्मित हो पाई है, उनका भी पूरी तरह से दोहन उपयोग नहीं हो पा रहा है। कहीं-कहीं तो उपयोग की क्षमता तीस या चालीस प्रतिशत से भी कम है। यदि इस तरह की स्थिति है तो उसके लिए प्रबंधन की क्षमता ही उत्तरदाई है।