पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों की श्रृंखला की अंतिम कड़ी के रूप में दक्षिणी राज्य तेलंगाना में गुरुवार को मतदान हो जाने के बाद अब सीधे अगले वर्ष के मध्य में लोकसभा के चुनाव होंगे। जैसा सियासी माहौल प्रचार अभियानों के दौरान नजर आया और विश्लेषकों को महसूस हुआ है उससे यह राय सहज ही बन रही है कि इन राज्यों के मतदान के जो परिणाम 3 दिसम्बर को आएंगे उनसे जनता के समक्ष नयी राहें खुलने जा रही हैं जो मौजूदा परिस्थितियों से देश को निकालने में सक्षम होंगी।
वैसे तो एक संघीय ढांचे के अंतर्गत हर स्तर के चुनावों का अपना महत्व होता है; चाहे वह स्थानीय निकायों का ही क्यों न हो, लेकिन 2019 के लोकसभा चुनावों के बाद से जिस प्रकार भारतीय जनता पार्टी की सरकार ने देश में अराजकता का माहौल पैदा किया है उससे यह बात तो साफ हो गयी है कि नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्री रहते देश में लोकतंत्र सुरक्षित नहीं रह सकता। वैसे तो 2014 में पहली बार पीएम बनने के बाद से ही मोदी ने सारी ताकत अपने हाथों में लेकर जनता पर शिकंजा कसना शुरू कर दिया था, लेकिन उनका और भी अलोकतांत्रिक व्यवहार दूसरी बार अधिक विशाल बहुमत प्राप्त करने के बाद और भी बड़े स्वरूप में देखने को मिला। जितना खुलकर उन्होंने विपक्षी सरकारों को अस्थिर या परेशान किया, वैसा कभी भी भारत में देखने को नहीं मिला था। उनका ‘कांग्रेस मुक्त भारत’ का नारा कब ‘विपक्ष मुक्त भारत’ में बदल गया, पता भी नहीं चला। इस अलोकतांत्रिक नारे को उन्होंने ऐसा लोकप्रिय बना दिया कि लोग विधायकों की खरीद-फरोख्त कर या डरा-धमकाकर निर्वाचित राज्य सरकारों को गिराने की काली करतूतों को ‘चाणक्यगिरी’ या ‘आॅपरेशन लोटस’ का नाम देकर महिमामंडित करने लगे।
यह ऐसा भी समय है जब मोदी और केन्द्रीय गृह मंत्री अमित शाह के इशारे पर केन्द्रीय जांच एजेंसियों का खुला उपयोग विपक्षी नेताओं को प्रताड़ित करने के लिये किया जा रहा है। इन एजेंसियों के लिये सम्भवत: स्पष्ट निर्देश हैं कि उनकी कार्रवाइयां केवल विपक्षी दलों के नेताओं के खिलाफ ही होनी हैं। भाजपा व उनके समर्थक दलों व लोगों की ओर से आंखें मूंद ली जाती हैं। जिन राज्यों में चुनाव हो रहे हैं उनमें से एक छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल के खिलाफ महादेव एप की ओर से 508 करोड़ रुपये देने का आरोप लगाया गया तो वहीं मध्यप्रदेश के कद्दावर नेता व केन्द्रीय मंत्री के पुत्र, जो दिल्ली से आकर विधायकी का चुनाव लड़ रहे हैं, वीडियो पर 100 और 500 करोड़ रुपयों की डील करते दिखते हैं। उनके घर पर प्रवर्तन निदेशालय, आयकर या सीबीआई के अधिकारी नहीं पहुंचते। केन्द्रीय जांच एजेंसियों की भूमिका एक तरह से भाजपा को मदद देने मात्र की रह गई है।
इन पांच राज्यों के चुनावों में, खासकर हिन्दी पट्टी के राजस्थान, मध्यप्रदेश व छत्तीसगढ़ में भाजपा द्वारा साम्प्रदायिकता का कार्ड खेलने की भी कोशिश हुई जो नाकाम रही। उसके मुकाबले जनहित के मुद्दे हावी रहे। यहां तक कि विकास की चर्चा से दूर भागने वाली भाजपा को इन तीनों प्रदेशों में चुनाव जीतने के लिये वादों और गारंटियों की बात करनी पड़ी। उसे शिक्षा, रोजगार, खेती-किसानी, स्वास्थ्य आदि को भी अपने घोषणापत्रों में शामिल करना पड़ा जो उसकी परम्परा के अनुकूल नहीं है- खासकर हाल के वर्षों में। उम्मीद है कि अगर इन राज्यों में भाजपा की हार होती है, जिसके अनुमान कई विश्लेषक, सर्वेक्षण आदि कर रहे हैं, तो भाजपा को 2024 के लोकसभा चुनावों में नये सिरे से मुद्दों की तलाश करनी होगी। हालांकि अयोध्या के नवनिर्मित राममंदिर को बेशक मुद्दा बनाया जायेगा जिसका उद्घाटन मोदी के हाथों 22 जनवरी को होने जा रहा है। फिर भी वर्तमान राजनैतिक माहौल में लगता है कि जनता इसे विशेष तवज्जो नहीं देगी तथा इन्हीं चुनावों के नतीजे राममंदिर मुद्दे को पहले से ही बेअसर कर देंगे।
इसी सम्भावित पराजय के कारण इन राज्यों के पूरे प्रचार अभियान के दौरान बौखलाई भाजपा एवं मोदी कांग्रेस, विशेषकर उसके प्रमुख नेता राहुल गांधी को अपने खास निशाने पर लेते रहे। उनके लिये अपशब्दों के जरिये अपमान होता रहा, लेकिन पिछले साल की 7 सितम्बर से इस वर्ष 30 जनवरी तक राहुल की ‘भारत जोड़ो यात्राझ् ने जो परिदृश्य बदला है, उसके कारण लोगों का उनसे बड़े पैमाने पर जुड़ाव हुआ। उनका लोगों से नये सिरे से परिचय हुआ और इसी दौरान मोदी का असली रूप भी सामने आने लगा। उनकी हर मोर्चे पर नाकामी, कारोबारी गौतम अदानी व मुकेश अंबानी की उनके साथ मित्रता आदि ऐसे अनेक मुद्दे सामने आये जिसने मोदी की मेहनत व करोड़ों रुपये खर्च कर बनाई गई छवि को ध्वस्त कर रख दिया।
इन चुनावों ने राहुल व कांग्रेस को बहुत सशक्त एवं एकजुट किया है। कुछ राज्यों में उनके नेताओं के बीच जो मतभेद थे वे भी जीत की प्रत्याशा में समाप्त हो गये। इसके विपरीत यह भी आशंका है कि जिस तरह से भाजपा की बड़ी पराजय के अनुमान लगाये जा रहे हैं, उससे खुद मोदी को अगले प्रधानमंत्री पद की दावेदारी प्रस्तुत करने में दिक्कत आ सकती है क्योंकि उनके साथ या उनके चेहरे पर चुनाव लड़ने में उनकी पार्टी के ही नेता व सांसद परहेज कर सकते हैं। कांग्रेस और उसके नेतृत्व में बना संयुक्त प्रतिपक्षी इंडिया गठबंधन दोनों उत्साहित हैं। इंडिया व भाजपा के नेतृत्व वाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) के बीच आमने-सामने का पहला मुकाबला भी अगले लोकसभा चुनावों में होगा। सम्भवत: इन चुनावों के परिणामों से भारतीय जनतंत्र की नयी राहें खुल सकती हैं।